भारत में मानवाधिकार आयोग को दिया जाना चाहिए संवैधानिक दर्जा

भारत में मानवाधिकार आयोग को दिया जाना चाहिए संवैधानिक दर्जा 
    भारतीय लोकतंत्र का मूल आधार नागरिकों के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा है, संविधान के भाग-III में प्रदत्त मौलिक अधिकार प्रत्येक नागरिक को राज्य और उसकी एजेंसियों द्वारा होने वाले किसी भी दमन, अत्याचार अथवा मनमानी कार्यवाही से सुरक्षा प्रदान करते हैं, किंतु व्यवहार में अनेक बार ऐसी स्थितियाँ सामने आती हैं, जब नागरिकों के अधिकारों का हनन होता है और न्यायिक प्रक्रिया लंबी होने के कारण प्रभावित व्यक्ति समय पर राहत प्राप्त नहीं कर पाता, ऐसे में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग  और राज्य मानवाधिकार आयोगों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है परंतु विडम्बना यह है कि वर्तमान में मानवाधिकार आयोग को संवैधानिक दर्जा प्राप्त नहीं है, बल्कि यह सिर्फ एक वैधानिक संस्था है जो मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 के अंतर्गत गठित है ।
 इस लेख में हम समझेंगे कि मानवाधिकार आयोग को संवैधानिक दर्जा क्यों दिया जाना चाहिए, मौजूदा व्यवस्था की सीमाएँ क्या हैं, तथा संवैधानिक संस्था बनने के क्या लाभ होंगे।

@मानवाधिकार आयोग: वर्तमान स्थिति : भारत में मानवाधिकार आयोग का गठन 1993 में किया गया था जिसका मुख्य उद्देश्य मानवाधिकारों की रक्षा करना, उनके उल्लंघनों की जांच करना तथा सिफारिशें देना है। आयोग की शक्तियाँ मुख्यतः सलाहकार प्रकृति की हैं।

@हालाँकि आयोग जांच कर सकता है, लेकिन—इसकी सिफारिशें बाध्यकारी नहीं हैं, राज्य एजेंसियाँ इन्हें अनदेखा कर सकती हैं, आयोग के पास दंडात्मक अधिकार नहीं हैं, फलस्वरूप कई गंभीर मामलों में आयोग रिपोर्ट तो जारी करता है, परंतु उसके निर्णयों को व्यावहारिक रूप में लागू नहीं किया जाता।

@मानवाधिकारों के उल्लंघन की वास्तविकता : भारत में मानवाधिकार उल्लंघन की घटनाएँ प्रायः निम्न क्षेत्रों में देखने को मिलती हैं—
 #पुलिस अत्याचार, हिरासत में मृत्यु
 #दलितों/अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव
 #महिलाओं के विरुद्ध अत्याचार
 #कैदियों के अधिकारों का उल्लंघन

 @उग्रवाद/आतंकवाद प्रभावित क्षेत्रों की समस्याएँ
 ★मीडिया स्वतंत्रता पर दबाव
 ★साइबर उत्पीड़न
 ★भीड़ हिंसा

   अक्सर देखा गया है कि मानवाधिकारों का उल्लंघन करने वाले अधिकतर मामले कानून प्रवर्तन एजेंसियां एवं पुलिस तंत्र से जुड़े होते हैं, अतः स्वतंत्र व प्रभावी जांच और बाध्यकारी कार्रवाई के लिए आयोग को मजबूत करना आवश्यक है।

©संवैधानिक दर्जा क्यों आवश्यक है?
 @मानवाधिकार आयोग को संवैधानिक दर्जा मिलने से—
 1. आयोग की स्वतंत्रता बढ़ेगी
     आज आयोग प्रशासन पर निर्भर है—
     ●फंडिंग
     ●नियुक्ति
     ●कार्यपालिका का नियंत्रण

 @संवैधानिक दर्जा मिलने पर इसका स्वतन्त्र अस्तित्व होगा।
   2. निर्णय बाध्यकारी बनेंगे
        वर्तमान में आयोग सिर्फ सिफारिश करता है। लेकिन संवैधानिक दर्जा मिलने पर—आयोग के आदेश बाध्यकारी बन सकते हैं, राज्य एजेंसियों को उनका पालन करना अनिवार्य होगा

3. निष्पक्ष जांच सम्भव होगी
     पुलिस या सरकारी अधिकारियों के खिलाफ जांच अधिक प्रभावी हो सकेगी और राजनीतिक हस्तक्षेप कम होगा।

4. अधिकारों की न्यायिक सुरक्षा
      संवैधानिक संस्था होने के कारण—
     आयोग का आदेश न्यायालय में चुनौती योग्य होगा, परंतु राज्य उसे नकार नहीं सकेगा

5. वैश्विक मानकों के अनुरूप सुधार
     संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार अनुच्छेदों के अनुरूप भारत को भी घरेलू संस्थाओं को मजबूत करना चाहिए।

@विद्यमान व्यवस्था की समस्याएँ

● सिफारिशें मानना वैकल्पिक

● कोई दंडात्मक शक्ति नहीं

● राजनीतिक नियुक्तियों की आशंका

● लंबित मामलों की संख्या अधिक

● सीमित संसाधन

कई मामलों में आयोग जांच करता है और गंभीर टिप्पणियाँ भी करता है, परंतु निर्णय लागू नहीं होते।

@संवैधानिक दर्जा पाने के संभावित तरीके

★मानवाधिकार आयोग को निम्न विकल्पों के माध्यम से संवैधानिक दर्जा दिया जा सकता है—

1. संविधान में नया अनुच्छेद जोड़कर
    जैसे— निर्वाचन आयोग, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक, राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग आदि।

2. अनुच्छेद 338ए जैसी व्यवस्था बनाकर
     कानूनी शक्तियाँ बढ़ाने वाला विशेष प्रावधान।

3. मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम में व्यापक संशोधन
     लेकिन यह केवल सीमित सुधार ला पाएगा इसलिए संवैधानिक संशोधन अधिक उपयुक्त है।

@संवैधानिक दर्जा मिलने से संभावित लाभ
   ★मानवाधिकार संरक्षण मजबूत होगा
   ★पुलिस सुधारों को प्रोत्साहन मिलेगा
   ★दुरुपयोग व दमन कम होगा
   ★नागरिकों का विश्वास बढ़ेगा
   ★अंतरराष्ट्रीय छवि मजबूत होगी
   ★न्याय प्रणाली पर भार घटेगा
   ★खासकर हाशिये पर पड़े वर्ग को सीधी सुरक्षा मिलेगी।

©विरुद्ध में दिए जाने वाले तर्क
   कुछ तर्क यह भी हैं कि—इससे न्यायपालिका और कार्यपालिका के अधिकारों में टकराव हो सकता है, अतिरिक्त खर्च और संसाधन की आवश्यकता होगी लेकिन लोकतंत्र में अधिकारों की रक्षा सर्वोपरि है। खर्च और सुधार—दोनों आवश्यक हैं।

√निष्कर्ष-
   भारतीय लोकतंत्र तभी सार्थक है जब नागरिक सुरक्षित, स्वतंत्र और सम्मानजनक जीवन जी सकें। राज्य का उद्देश्य मात्र प्रशासन चलाना नहीं, बल्कि प्रत्येक व्यक्ति की गरिमा और स्वतंत्रता की रक्षा करना है।
   मानवाधिकार आयोग को संवैधानिक दर्जा मिलना केवल संस्थागत मजबूती का मुद्दा नहीं बल्कि मानवाधिकार संरक्षण के प्रति भारत की प्रतिबद्धता का प्रतीक होगा। यह समय की माँग है कि संसद संविधान संशोधन कर आयोग को पूर्ण स्वतंत्र और बाध्यकारी शक्तियों से युक्त संवैधानिक संस्था घोषित करे, ताकि मानवाधिकारों के उल्लंघन पर प्रभावी रोक लग सके और भारत एक अधिक न्यायपूर्ण, मानवोचित और उत्तरदायी लोकतंत्र के रूप में आगे बढ़ सके। 

शिखर 
अधिवक्ता उच्च न्यायालय लखनऊ पीठ।

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